Monday, July 27, 2009

समाज का प्रतिबिम्ब

साहित्य समाज का वह परिधान है जो जनता के जीवन के सुख-दुख, हर्ष-विषाद, आकर्षण-विकर्षण के ताने-बाने से बुना जाता है। वह जीवन की व्याख्या करता है, इसी से उसमें जीवन देने की शक्ति आती है। वह मानव को, उसके जीवन को लेकर ही जीवित है, इसलिये वह पूर्णत: मानव-केन्द्रित हैं। मानव सामाजिक प्राणी है। सामाजिक समस्याओं, विचारों तथा भावनाओं का जहाँ वह स्रष्टा होता है, वही वह उनसे स्वयं भी प्रभावित होता हैं। इसी प्रभाव का मुखर रूप साहित्य हैं। साहित्य का अर्थ हैं- जो हित सहित हो।भाषा द्वारा ही साहित्य हितकारी रूप में प्रकट होता हैं। उसी के द्वारा मानव-समाज में एक दूसरे के सुख-दुख में भाग लेने का सहकारिता का भाव उत्पन्न होता हैं। साहित्य मानव के सामाजिक सम्बंधों को और भी दॄढ बनाता हैं, क्योंकि उसमें सम्पूर्ण मानव जाति का हित सम्मिलित रहता हैं। साहित्य साहित्यकार के भावों को समाज में प्रसारित करता हैं जिससे सामाजिक जीवन स्वयं मुखरित हो उठता हैं।साहित्य का आन्नद लेने के लिए हमें सतोगुणात्मक वृत्तियों में रमने का अभ्यास हो जाता हैं। साहित्य सेवन से मनुष्य की भावनाएँ कोमल बनती हैं।उसके भीतर मनुष्यता का विकास होता हैं, शिष्टता और सभ्यता आती हैं। आप आँख दिखाकर किसी को वश में नही कर सकते। केवल मधुर और कोमल वाणी ही ह्दय पर प्रभाव डालती हैं और उसके द्वारा आप दूसरों से मनचाहा कार्य करा सकते हैं। तुलसी भी इस बात को स्वीकार करते हैं---

तुलसी मीठे वचन ते, सुख उपजत चहुँ ओर।
वशीकरण इक मंत्र हैं,परिहर वचन कठोर॥

साहित्य का कान्ता-सम्मित मधुर उपदेश बडा प्रभावकारी होता हैं। केशव के एक छंद ने बीरबल को प्रसन्न कर राजा इन्द्रजीत सिंह पर किया हुआ जुर्माना माफ करवा दिया था। बिहारी के एक दोहे ने राजा जयसिंह का जीवन बदल दिया था। इस प्रकार साहित्य हमारे बाहय और आन्तरिक जीवन को निरन्तर प्रभावित करता रहता हैं। समाज और साहित्य का सम्बंध अनादि काल से चला आ रहा हैं। बाल्मिकी ने अपनी रामायण में एक आदर्श सामाजिक व्यवस्था का चित्रण कर अपने दृष्टिकोण के अनुसार समाज के विभिन्न पहलुओं की विवेचना करते हुए यह सिद्व किया कि मानव- समाज किस पथ का अनुसरण करने से पूर्व संतोष और सुख का अनुभव कर सकता हैं। तुलसी ने भी अपने समय की सामाजिक परिस्थितियों से प्रभावित होकर रामराज्य और राम परिवार को मानव समाज के सम्मुख आदर्श रूप में प्रस्तुत किया। अत: साहित्य समाज का प्रतिबिम्ब हैं।

Saturday, July 11, 2009

आशा

आशा सदा हमारे साथ है। दुखमय संसार में आशा ही वह चीज हैं जिसके बल पर मनुष्य जीता हैं।हम दुख सहते हैं, कष्ट झेलते हैं, मुसीबतो का सामना करते हैं, इसी आशा पर कि एक दिन सुख आयेगा। यही आशा हमारी जिन्दगी हैं। जिस दिन वह साथ छोड देगी उस दिन हम दुनिया का साथ छोड देगे। ईश्वर ने जब विश्व की रचना की तो उन्होने दुख के समय मनुष्य को ढाढस बँधाने के लिए अपनी प्रिय पुत्री आशा को भेज दिया। संसार में कोई भी सुखी नही हैं। सभी सुख की खोज में हैं, पर आज तक किसी ने उस वस्तु को पाया नही। सभी को किसी न किसी वस्तु की कमी खटकती रहती हैं- राजा हो या रंक। किसी को रूपये की चिन्ता हैं तो किसी को पुत्र की। किसी को रोग की चिन्ता हैं तो किसी को राजपाट की। चिन्ता-विहीन कोई नही हैं। हर कष्ट सहते हुए भी हम जीना चाहते हैं क्योंकि आशा सदा हमारे साथ हैं। आशा से अलग होकर हममें वह शक्ति नही रह जाती कि हम दुनिया की वास्तविकता का मुकाबला कर सके। जब हम परेशान होते हैं,आशा हमें धीरज बँधाती हैं, जब हम निरुत्साहित होने लगते हैं, आशा हमें उत्साहित करती हैं। आशा जिस दिन दुनिया से रूठ जायेगी, दुनिया मनुष्यों से खाली हो जायेगी । आशा से ही मनुष्य कष्ट्मय दुनिया में रहकर भी सुख का अनुभव करता हैं। आशा कहती हैं अतीत से सबक लो और भविष्य के लिए तैयारी करो।आशा का प्रबल शत्रु निराशा हैं। आशा और निराशा के बीच सदियों से द्वन्द्व चलता रहा हैं। आशा प्रकाश हैं तो निराशा अंधकार। आशा मनुष्य को भविष्य का सपना दिखलाकर वर्तमान तथा अतीत की चिन्ता से दूर ले जाती हैं तो निराशा मनुष्य को चिन्ता के गड्ढे में ढकेल देती हैं फिर भी निराशा के बीच मनुष्य को जीने की शक्ति आशा ही देती हैं। मनुष्य के जीवन में आशा ही एकमात्र प्रकाश हैं जिससे वह आगे बढता जाता हैं।

Saturday, July 4, 2009

स्त्री

हम खाते हैं भूख मिटाने के लिए, वस्त्र धारण करते हैं लज्जा निवारण के लिए, आराम करते हैं थकावट दूर करने के लिए। हमारा प्रत्येक कार्य किसी खास तात्पर्य से होता हैं फ़िर हमारा जीवन तात्पर्य विहीन क्यों हो?ये सभी जीवन के लिए आवश्यक हैं, पर जीवन स्वयं किस लिए है? इस जीवन का एक लक्ष्य होना चाहिए, एक ध्येय होना चाहिए। लक्ष्य का निर्माण करना सहज हैं पर ल्क्ष्य को प्राप्त करना कठिन।हो सकता हैं लक्ष्य प्राप्ति के लिए हमें आजीवन परिस्थितियों से लड़ना पडे़, हो सकता हैं हमें विकट रास्ते से गुजरना पडे़, आत्मीयजन साथ छोड़ दे। अपना कहलाने वाले पराया बन जाय, लोग छीटा-कसी करे, हमारे पैर लड़खड़ाए,कुछ दिनो तक निराशा के सिवा कुछ हाथ न लगे। पर हमें साहस और धैर्य नही खोना चाहिए। आगे चलकर पीछे नही मुड़ना चाहिए। हमारे पास सच्ची लगन हैं तो अन्त में हमें सफलता अवश्य मिलेगी।मैं दुनिया से निर्लिप्त रहकर आत्मोन्नति करना चाहती हूँ, आत्म विकास करना चाहती हूँ। मैं सदा अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण रखने की चेष्टा करती हूँ, क्यों कि मैं जानती हूँ कि आज के युग में पग-पग पर प्रलोभन हैं,वासना को उभारने वाली चीजे हैं, स्कूली पुस्तक से लेकर फिल्मो के कथानक और रेडियों के गीतो तक में श्रींगार रस की प्रधानता हैं जबकि मैं महसूस करती हूँ कि इसके लिए शान्त और स्वच्छ वातावरण और सात्विक भोजन की आवश्यकता होगी। आज की शिक्षा से मैं असन्तुष्ट हूँ। मुझे ऎसी शिक्षा की आवश्यकता हैं जो आत्मिक विकास में सहायक हो, हमारे सदगुणो को जगाये। मैं जानती हूँ कि दुनिया मुझे कहेगी कि तुम कठिनाइयों से डर कर भाग रही हो। यह दुनिया कर्मभूमि हैं,यहा कायरों के लिए स्थान नहीं। मुझे कठिनाइयों से भय नही, बाधाओं से घबराती नहीं, डर हैं तो आज के पतित दुनिया के प्रति।मैं दुनिया नही छोड़ना चाहती बल्कि दुनिया के दुर्गुणो पर विजय पाने की शक्ति प्राप्त करना चाहती हूँ। मैं कर्म से नही डरती,कर्तव्य से नही भागती बल्कि चाहती हूँ त्याग और तपस्या की अग्नि में जलकर दुनिया के समक्ष एक उदाहरण बनूं ।वह देश, वह समाज, वह व्यक्ति सभ्य नहि कहला सकता जिसने स्त्रियों का आदर न किया हो। पुरुष देश की बाहु हैं तो स्त्री देश का ह्दय। एक को भी खोकर देश सबल नही रह सकता।पुरुष द्वार का रौनक हैं तो स्त्री घर का चिराग। आज हमारे घरो में चिराग हैं पर उसमें तेल नही। दोष हैं हमारे समाज का। हमारे समाज के लोग कह्ते हैं ,स्त्री-शिक्षा पाप हैं । लोग कहते हैं , वेद कहता हैं, पुराण कहता हैं नही ,ये वही लोग कहते हैं जो वेद और शास्त्र शब्द को शुद्व लिख भी नही सकते।अत: जिस तरह पुरुष शिक्षा आवश्यक है उसी तरह स्त्री शिक्षा भी अनिवार्य हैं। यह आवश्यक नही कि हमारे देश की स्त्रियाँ भी अन्य देशो की स्त्रियों की तरह नौकरी करने के लिए ही पढे।
जीवन क्षेत्र का विभाजन प्रमुखत: दो भागों में किया जा सकता हैं- घर और बाहर। दोनो का महत्व समान होते हुए भी पहला घर हैं। क्यों कि घर की उन्नति पर ही बाहर की उन्नति निर्भर करती हैं। घर की देख-रेख करना साधारण काम नही हैं बल्कि इसमें अधिक धैर्य और सहनशीलता की आवश्यकता होती हैं। पुरुष इतना त्याग नही कर सकते। लोग कहते हैं कि बच्चे पालना और रसोई करना बेकार काम है, उन्हें एक नौकरानी कर सकती हैं लेकिन मैं कहती हूँ बच्चे पालना और रसोई बनाना दुनिया के सभी कामों में महान काम हैं।ये वे काम हैं जिन पर किसी का बनना-बिगड़ना निर्भर करता हैं। नौकरी करने वाली स्त्री सिर्फ अपना भाग्य निर्माण कर सकती हैं, सिर्फ अपने आपको दूसरो की निगाह में ऊँचा उठा सकती हैं, पर घर में काम करने वाली शिक्षित स्त्री देश का भाग्य निर्माण कर सकती हैं। स्वयं छिपे रहकर बहुतो को प्रकाश में ला सकती हैं।घर का खाना स्वादिष्ट इस लिए होता हैं कि उसमें स्नेह के कण मिले रहते हैं। घर की स्वामिनी ही अपने पति की स्वामिनी होती हैं। जिसने घर पर अपना कब्जा न किया वह पति पर क्या कब्जा कर सकती हैं।अगर पढी लिखी स्त्रियाँ दूसरे के नौकरी की अपेक्षा अपने घर की ,अपने बच्चो की देखभाल करे तो मेरा विश्वास हैं कि एक के चलते अनेको का सुधार हो जायेगा और घर का ही दूसरा नाम स्वर्ग पड़ जायेगा।